Friday, October 22, 2010

जन जन का धूप

उनका युवाओं की वजह से कास्‍मेटिक्‍स का अच्‍छा खासा उद्योग चला हुआ था। जो भी युवा होता तो पहली मांग उनके द्वारा निर्मित कास्‍मेटिक्‍स की ही करता। वह रोटी से परहेज करता पर कास्‍मेटिक्‍स से नहीं। कई बार मैंने कुछ जवानों को समझाया भी,‘ दोस्‍तो! ये जो आप लोग अपने चेहरे पर चमक देख रहे हो वह इनके सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से नहीं आई है, ये तो कुदरती है। इस उम्र में तो सूअर के चहरे पर भी नूर होता है।' पर उन्‍होंने मेरी बात नहीं मानी तो नहीं मानी। वैसे भी बाजार की मार से गल चुके चेहरे पर कौन विश्‍वास करेगा? औरों को तो छोड़िए मेरी पत्‍नी तक नहीं करती। वह अभी भी सोलह के चक्‍कर में चेहरे पर, पता नहीं क्‍या क्‍या पोते रखती है। पर सूरत है कि जितना वह उसे संवारने की कोशिश करती है उतनी और भी धुलती जा रही है। पर समझदार अधेड़ उनकी कंपनी के कास्‍मेटिक्‍स यूज न करते । वे असल में उनके लिए सौंदर्य के प्रसाधन बनाते भी नही थे। कारण, एक उम्र के अनुभव के बाद उल्‍लू भी उल्‍लू बनना छोड़ देता है। और जो उल्‍लू होता ही नहीं उसे उल्‍लू बनाने का कुप्रयास करना धन और समय दोनों की बरबादी होती है। ये मुझसे और आपसे बहुत ज्‍यादा बाजार जानता है।
इधर मंदी का दौर अचानक आ धमका तो युवाओं के चमकीले चेहरे एकदम बे नूर हो गए। नौकरियों के लाले पड़ने लगे। जो घंटों नौकरी पर जाने से पहले सौंदर्य प्रसाधनों से खुद को नख से शिख तक पोते रखते थे वे बेरोजगार हो गए तो उनका उद्योग बंद होने के कगार पर आ पहुंचा।
युवाओं के साथ साथ वे भी परेशान हो उठे। अब क्‍या बेचें ? किसे बेचें ?उन्‍होंने आनन फानन में अपनी एमबीए की टीम की मीटिंग
बुलाई,‘ हे मेरे प्रोडक्‍ट्‌स के जुझारू विक्रताओं! जैसा कि आप सभी जानते हैं कि हमारे देश में ही नहीं, पूरे विश्‍व में मंदी को दौर चल रहा है। युवाओं को चाय का कप तक कमाना मुश्‍किल हो रहा है ऐसे में हमारे कास्‍मेटिक्‍स कोई खरीदे भी तो कैसे? जो खरीद भी रहे हैं उनके चेहरे मंदी के कारण और भी लटकते जा रहे हैं और वे अपने चेहरों के लटकने का कारण वैश्‍विक मंदी को न मान कर हमारे प्रॉडक्‍टस के हल्‍केपन को मान रहे हैं। दोष उनका भी नहीं। खैर छोडो! अब मुद्‌दा यह है कि बाजार में बने रहने के लिए क्‍या बनाया जाए? कहीं ऐसा न हो कि मुझे भी आप लोगों की छंटनी करनी पड़े।' छंटनी का नाम सुनते ही सारे के सारे मीटिंग में बैठे एमबीओं के चेहरे लटक गए।
एक ने पलक झपकते कहा,‘ सर! मेरे हिसाब से अब धूप बनाया जाए। 'उसने कहा तो बगल वाले दोनों हंस पड़े। मालिक भी हंसना चाह रहा था पर वह गंभीर रहा। कुछ देर सोचने का नाटक करने के बाद पूछा,‘धूप क्‍यों?'
सर मैंने इतिहास पढ़ा है। और इतिहास कहता है कि हम उस समय जब विदेशी आक्रमणों से खुद को बचाते बचाते थक गए थे तो हमने हार स्‍वीकार कर ली थी।'
तो?'
मनुष्‍य के पास हारने के बाद जब कोई रास्‍ता नहीं रहता तो वह कहीं और जाए या न जाए पर भगवान की शरण में अवश्‍य चला चला जाता है।'
तो??' मालिक की दिलचस्‍पी उसकी बात में कुछ और बढ़ी।
भगवान की पूजा करने के लिए धूप की तो जरूरत पड़ेगी ही न सर!'
तो??'
तो तय है सर! मंदी के कारण पूरे समाज के साथ हमारा युवा वर्ग कहीं और जाए या न जाए ईश्‍वर की शरण में जरूर जाएगा।'
तो?'
तो सर इन दिनों बाजार में कुछ बिके या न धूप बहुत बिकेगा। जितना चाहे धूप बनाओ, धूप की मांग कम नहीं होगी। मंदी के मारों के पास भगवान की शरण में जाने के सिवाय और कोई रास्‍ता है ही नहीं। और भगवान के पास धूप के बिना जाना घोर अपराध बताया गया है शास्‍त्रों में। मंदी के दिनों में मनुष्‍य अपराध करने से तो नहीं डरता पर घोर अपराध करने से बहुत डरता है। मेरी विनम्र राय है कि अगर हम कास्‍मेटिक्‍स बनाना बंद कर धूप बनाने का काम शुरू कर दें तो कंपनी के वारे न्‍यारे होंगे। आजकल धूप की इतनी मांग है कि धूप में चाहे तारकोल भी डाल दी जाए तो भी किसी को शिकायत न होगी। '
पर धूपों से तो बाजार अटा पड़ा है।'
पर हम मल्‍टीपरपज धूप बनाएंगे सर! आई मीन वन फॉर आल।'
और उनकी कंपनी ने समाज की नब्‍ज पकड़ धूप बनाने का काम शुरू कर दिया।
धूप बन कर तैयार हो गया तो धूप का नामकरण करने की बारी आई। धूप के मालिक ने एकबार फिर अपने एमबीओं की आपात बैठक बुलाई। एमबीओं को संबोधित करते हुए धूप के मालिक ने कहा,‘ हमारा धूप बन कर तैयार हो गया है। अब उसका नामकरण करना श्‍ोष है। कोई ऐसा नाम बताइए कि धूप दुकानों में जाने से पहले ही उठ जाए।'
काफी देर तक सभी सोच में डूबे रहे। कुछ देर के बाद एक ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे एमबीए ने सन्‍नाटा तोड़ते़ कहा,‘ हनुमान धूप नाम रखें सर!'
क्‍यों?'
हनुमान संकट मोचक हैं। अतः इस धूप को लेकर जनता को लगेगा कि इसके प्रयोग से उनके संकट गायब हो जाएंगे।'
पर हनुमान तो यति हैं। इससे धूप का बाजार सीमित हो जाएगा सर!' दूसरे एमबीए ने कहा तो उसके तर्क में दम देख धूप का मालिक पहले को घूरने लगा।
तो गणेश छाप धूप नाम रखें सर!' तीसरे एमबीए ने सुझाव दिया।
नहीं, गणेश बाजार में और भी बहुत कुछ बेच रहे हैं । उनको और एक्‍सप्‍लाइट्‌ करना घाटे का काम रहेगा सर!' चौथे एमबीए ने कहा।
देखिए, आप लोग अक्‍ल से काम क्‍यों नहीं ले रहे। धूप को एक धर्म से जोड़ने पर दूसरे धर्मों के लोग उसे कहां खरीदेंगे? जबकि आज मंदी के दौर से उबरने के लिए धूप सभी धर्मों के लोगों के लिए जरूरी है। ऐसा करने से धूप की मार्किट कम नहीं हो जाएगी क्‍या? नॉन सेक्‍यूलर्‌ देश में इस वक्‍त सेक्‍यूलर्‌ धूप की जरूरत है।'
पर सर देश में सेक्‍यूलर्‌ सेक्‍यूलर्‌ भी नहीं।' पांचवे एमबीए ने कहा।
तो उसका नाम रखते हैं सेक्‍यूलर्‌ धूप।' हाथी की टांग में सबकी टांग।
और सेक्‍यलर्‌ धूप के विज्ञापन बन गए- जो मंदी को भगाना चाहें, तो सच्‍चे प्रतिनिधि हर नुक्‍कड़ पर सेक्‍यूलर्‌ धूप जलाएं। महंगाई से चाहो जो छुटकारा पाना, तो सुबहो शाम घर में चूल्‍हे से पहले सेक्‍यूलर्‌ धूप जलाना। जो झेल रहे हों बेरोजगारी की मार, मुक्‍ति के लिए सेक्‍यूलर्‌ धूप बस एक बार। न चाय, न काफी, न सूप, हर एक का जीवन रक्षक सेक्‍यूलर्‌ धूप। सेक्‍यूलर्‌ धूप आप चाहे झुग्‍गी में जलांए,चाहे किराए के मकान में जलाएं, चाहे बंगले पर जलाएं, जहां भी जलाएं केवल और केवल खुशहाली पाएं। गंगू तेली का प्‍यारा सेक्‍यूलर्‌ धूप! राजा भोज का दुलारा सेक्‍यूलर्‌ धूप। जो बीवी से करे प्‍यार, वो सेक्‍यूलर्‌ धूप से कैसे करे इनकार! सेक्‍यूलर्‌ धूप घर में लाइए, हरेक श्‍मशान में समृद्धि पाइए। तीनों लोकों का दुलारा, सेक्‍यूलर्‌ धूप हमारा। जब जब भगवान हों परेशान, उनके लबों पर भी बस एक ही नाम! सेक्‍यूलर्‌ धूप!!
और लोग हैं कि आटे की जगह भी धूप ही खरीद रहे हैं। धूप बाहर के देशों को भी धड़ाधड़ आयात हो रहा है। वाह! भूखे पेट भजन होई गोपाला??

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