Friday, October 22, 2010

कहो, कैसी रही कबीर?

भाई साहब! अब आप से छुपाना क्‍या! मंदी के इस दौर में भी हफ्‌ते में एक दिन जैसे तैसे उपवास रख ही लेते हैं। इसलिए नहीं कि भगवान से अपना कोई नाता है। इसलिए भी नहीं कि हम परलोक सुधारने के चक्‍कर में हैं। ये लोक तो चमची मार कर मजे से कट गया। अगले लोक में भी कोई न कोई चमचा प्रेमी मिल ही जाएगा। अरे साहब ! अब तो जब घरवालों से ही कोई रिश्‍ता नाता नहीं रहा तो भगवान से रिश्‍ते की बात करना समय की बरबादी करना है। अब तो सारे रिश्‍ते नाते मनी बेस्‍ड हो गए हैं। आत्‍म केंद्रित हो गए हैं। घरवाले बाप को बाप तब तक कहते हैं जब तक उनकी मांगें पूरी करते रहो। जिस दिन उनकी मांगें पूरी करने में आपने जरा सी भी असमर्थता जाहिर कर दी के उसी वक्‍त आप कौन तो वे कौन? वे मेरी तरह आप को पहचान भी जाएं तो आपका जूता मेरा सिर। सिर भी वह जिस के बाल घिस घिस कर साफ हो गए हैं।
हम तो साहब उपवास इसलिए रख लेते हैं कि इस बहाने हफ्‌ते में कम से कम एक दिन तो भरपेट फल फ्रूट खाने को नसीब हो जाते हैं। उपवास तो मात्र एक बहाना है। असल में उपवास के नाम पर चपाती छोड़ डटकर मेवे सेवे खाना है। रोज रोज चपाती खा खाकर आपका मन नहीं उकता जाता? मेरा तो उकता जाता है और उसका सबसे सरल रास्‍ता है कि हफ्‌ते में एक दिन उपवास।
कल भी मेरे उपवास था। थाली में आठ दस केले काट कर भगवान के नाम पर रखे हुए थे। साथ में चार सेब। पोता दूर से सेबों को देख घूर रहा था। पर घरवाली ने उसे भगा दिया,‘ बहू! कहां हो । पोते को परे ले जाओ। देखती नहीं तुम्‍हारे ससुर जी के उपवास है। बेचारों ने सुबह से कुछ खाया नहीं।' पोता बहू की गोद में जा केलों की थाली को टुकुर टुकुर देखता रहा। पर मेरी हिम्‍मत उसे केले का एक टुकड़ा देने की नहीं पड़ी तो नहीं पड़ी।
अभी थाली में से एक केले का टुकड़ा उठाया ही था कि दरवाजे पर दस्‍तक हुई। घरवाली ने दरवाजा खोला तो सामने एक ढली उम्र के। पर अकड़ ऐसी जैसे किसी कमर्शियल फिल्‍म के हीरो हों।
कौन???' घरवाली ने गुस्‍साते पूछा।
मैं कबीर!' कबीर ने मुस्‍कराते हुए कहा तो मुझे अचानक किताबों वाले कबीर की याद आ गई।
कौन कबीर?? हम तो किसी कबीर कबूर को नहीं जानते।' घरवाली दरवाजा फेरने को हुई तो मैंने उससे कहा,‘ जरा रूको। आने दो इन्‍हें भीतर। तुम भीतर जाओ।' कबीर वैसे ही मुस्‍कराते हुए मेरे पास आ गए।
पहचाना??'
अगर मैं गलत न होऊं तो आप किताबों वाले कबीर ही हो न??'
अरे वाह! मान गए उस्‍ताद! ऐसी धक्‍कमपेल जिंदगी में भी अपनी मेमोरी को बनाए हुए हो।'
तो यहां कैसे आना हुआ??'
तुम्‍हारे मुहल्‍ले से एक श्रद्धालु लाउडस्‍पीकर से बांग दे रहा था। ऊपर कान फट गए तो चला आया उसे समझाने।'
आपकी पंगे लेने की आदत ऊपर भी नहीं गई??'
क्‍या करूं भाई। आदत कैसे बदलूं?'
तो क्‍या कहा उसने?'
कहता क्‍या! बोला- जब बगल वालों को ही आब्‍जेक्‍शन नहीं तो तुम कौन होते हो परेशान होने वाले?'
तो भगवान को बिना लाउउस्‍पीकर के ही बुला लेते। पहले ही क्‍या यहां पर ध्‍वनि प्रदूषण कम है जो अब तुम भी․․․․'
तभी तो लाउडस्‍पीकर से बुला रहा हूं। इतने शोरशराबे में उस तक मेरी बिन लाउडस्‍पीकर के आवाज क्‍या पहुंच जाएगी? बिना लाउडस्‍पीकर के तो बगल वाला बंदा तक नहीं सुन पाता और वह तो स्‍वर्ग में बैठा है।'
तो ??'
तो क्‍या बंदे की बात में दम था इसलिए पानी पानी हो चला आया।'
पर आप तो आजतक सभी को पानी पानी करते आए थे।' मैंने कहा तो वे कुछ देर कुछ सोचते हुए चुप रहे। फिर सन्‍नाटा चीरते बाले,‘ ये क्‍या??'
उपवास है।'
तो???'
तो क्‍या ! अन्‍न का त्‍याग किया है आज का दिन।' मैंने अपने को महान धर्मात्‍मा के पद पर प्रतिष्‍ठित करते हुए कहा तो वे पेट पकड़ कर हंसने लगे।
इसमें हंसने की क्‍या बात है? चार केले मुंह में ठूंसने के बाद मैंने दूध का गिलास मुंह में उड़ेलते पूछा।
एक बात बताओ?? मुझे कितना पढ़ा??'
आपको लेकर ही तो पीएचडी. की है। प्रोफेसर रिटायर हुआ हूं।'
झूठ! सफेद झूठ!! मुझको लेकर पीएचडी करते तो कम से कम मंदी के इस दौर में दस रूपए की चार चपातियां छोड़ सौ रूपए के फल न तोड़ते। मुझको लेकर ही पीएचडी. की थी या किसी और पर मुझे फिट कर दिया था?'
मतलब!!' मैं चौंका।
देखो एक्‍स शोधार्थी। आज शोध के नाम पर फिटिंग ही तो चल रही है। कबीर को तुलसी पर फिट कर दो तुलसी को अज्ञेय पर। अज्ञेय को निराला पर फिट कर दो निराला को भारती पर और हो गई पीएचडी।'
पर कबीर साहब! किताबों से पेट तो नहीं भरता न! पेट के लिए तो……' मैं आगे कुछ कहने के बदले चुप हो गया।
तो कौन कहता है उपवास रखने को? यार पढ़े लिखे हो। सबकुछ करो ,पर उपवास के साथ उपहास तो मत करो। जो करो, मन से करो।'
पर आज मन यहां है किसके पास??' फिर कुछ देर तक मेरी पीठ थपथपाने के बाद बोले,‘ कबीर हूं न, सो चुप रहा नहीं जाता तो नहीं रहा जाता। तुम आम आदमी तो हो नहीं, बुद्धिजीवी हो। पर इस समाज का कुछ नहीं हो सकता। एक कबीर तो क्‍या, लाख कबीर भी आ जाएं तो भी नहीं।' कह वे मुंह सा बनाते उठने को हुए तो मैंने आधा सिर झुकाए पूछा,‘ कबीर, मछली तो मछली है, क्‍या छोटी,क्‍या बड़ी! देश आजाद है। सभी को खाने का पूरा हक है। मन मार कर सदियों तक बड़े जिए। अब तो खुलकर जीने दो न․․․․․ कहां जा रहे हो?'
कहां जाऊंगा? कबीर को तो इस संसार में जगह ही जगह है।कह वे उठे तो मैंने चैन की सांस लेते घरवाली से पूछा,‘ चाय को पानी तो नहीं रखा था ?'
नहीं, सोच रही थी वे जाने का नाम लेते तो चाय को पानी रखने का नाटक करती।'
भगवान ऐसी घरवाली सबको दे। अंदर से थोड़े से काजू और लाना ।' मैंने भगवान का नाम लिया और दो केले पलक झपकते डकार गया। अब पेट कुछ भरा भरा लग रहा है। सच कहता हूं उपवास वाले दिन तो पेट मुआ भरने का नाम ही नहीं लेता। पेट भरने का कोई शानदार तरीका हो तो प्‍लीज लिख भेजिएगा। तहेदिल से पूरे देशवासी आपके शुक्रगुजार रहेंगे।

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