Thursday, October 28, 2010

फादर कछु न करि सकै


फिर  एक और मोर्चे पर से
असपफल हो लौटे बीवी को मुंह दिखाने
को मन ही नहीं कर रहा था। क्या मुंह
दिखाता बीवी को! हर रोज वह भी मेरा
हारा हुआ थोबड़ा देख देख कर थक
चुकी थी। सो एक मन किया कि रास्ते
में पड़ने वाले कमेटी के पानी के टैंक में
आत्महत्या कर ली जाए। रोज रोज की
असपफलताओं से छुट्टी। मैंने हिम्मत की
और पानी के टैंक की तरपफ हो लिया।
वहां पहुंच देखा, हाय मेरी किस्मत! टैंक
बरसात के दिनों में भी खाली। मन ही
मन अपनी किस्मत को गालियां देने के
बाद भी जब मन नहीं भर तो कमेटी
वालों को जोर जोर से गालियां देता रहा
कि तभी वहां पर घूमते हुए एक
महापुरुष से पहुंचे। मेरे कांधे पर हाथ
रखते पूछा, ‘क्यों वत्स क्या बात है?
बड़ी तन्मयता से गालियां दे रहे हो?’
पर बाबा आप कौन??’ मैंने पीछे
मुड़कर देखा तो पहचाने से लगे।
आठवीं-दसवीं में जब कभी हिंदी पढ़ा
करता था तो उनकी तस्वीर किताब में
देखी थी। उनको पहचानने की कोशिश
करते मैंने पूछा, ‘बाबा! आप माला तो
कर में पिफरै... वाले ?’
नहीं कहूं तो?’ कह वे हंसे।
तो रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो
चटकाय...?’ मैंने कहा तो वे दूर दूर तक
उदास होते बोले, ‘बेटा! कहां अब वह
धागा प्रेम का, अब क्या तोड़े चटकाय!
अब तो प्रेम इतिहास की किताबों में कैद
होकर रह गया।
पर पिफल्मों में तो आज भी कहानी
के बदले प्रेम ही प्रेम है बाबा!’
छी! प्रेम के बारे में कितना अल्प
ज्ञान है तुम्हारा! उसे प्रेम कहते हो जो
थिएटर में टिकटों में बिकता है? जिस
प्रेम को लेखक पैसे के लिए घड़ता है
और नायक नायिका से पैसे के लिए
करता है। उसे तुम प्रेम कहते हो जो
आज क्यारियों मंे उगाया जा रहा है और
हाट में पालीथीन के लिपफापफों में पैक
करके ग्राहकों के लिए सजा कर रखा
है। पैसे दिए और ले
गए। अच्छा चलो
छोड़ो! जब कहीं प्रेम है
ही नहीं तो उस पर
चर्चा करना बेकार है।
पर तुम सूखे कमेटी के
टैंक के पास क्या कर
रहे थे?’ पूछ वे मेरे
साथ ही बैठ गए। क्या
कहूं? क्या कहूं? ऐन मौके पर
रहिमन ने आकर मेरे मरने का सारा
जोश ठंडा कर दिया। आप बताएंगे
साहब कि ये महापुरुष ऐन मौके पर ही
क्यों अवतरित होते हैं? एक तो मुझे
पहले ही कमेटी वालों पर गुस्सा क्या
कम था! बिल देने तो नंगे पांवों दौड़े रहते
हैं, कभी टैंक में मरने लायक पानी भी
तो जमा करके रखो तो बात बने। ऊपर
से साहब पूछ रहे हैं कि टैंक के पास
क्या करने आए थे? मन किया कह दूं
कि घर के नल में महीने से पानी नहीं
आया है सो यहां पानी के दर्शन करने
आया था। पर जाने क्या सोच चुप रहा
तो उन्होंने ही पिफर पूछा, ‘बहुत परेशान
लग रहे हो? क्या बात है? बीवी से
लड़ाई हो गई क्या!’
उसके साथ लड़े बिना तो गृहस्थी
नरक है।मैंने सहज हो कहा तो वे
झुंझलाए।
तो बच्चों की एडमिशन के लिए
परेशान हो?’
वह तो सरकारी स्कूल में जा रहा
है। रोज दोनांे वक्त की खिचड़ी एक ही
बार खा अलसाता हुआ घर रहा है।
उसकी तरपफ से मुझे कोई परेशानी नहीं।
मास्टर जी ने कहा है जब तक वे हैं
उसके पास होने की कोई चिंता नहीं।
उसके बस्ते में किताबें पड़ें या पर
प्लीज! थाली जरूर डाल दिया करना।
तो???’
हर मोर्चे पर असपफल चल रहा हूं।
जहां भी जाता हूं धंधे के प्रति पूरी निष्ठा
के बाद भी धकिया दिया जाता हूं। सच
कहूं तो अब मरने को मन हो रहा है।
मैंने उनसे दिल की बात कह दी।
क्या -क्या किया अब तक??’
सरकारी नौकरी की, नहीं चली तो
साल बाद ही छोड़नी पड़ी। निष्ठाएं ले
राजनीति में गया, धकियाया गया।
करियाने की दुकान खोली, महीने में बंद
हो गई। तटस्थ हो लिखने लगा,
प्रकाशित करने में सबने खेद व्यक्त
किया। थक हार कर बस अड्डे पर
मूंगपफली की रहेड़ी लगाई कि चौथे दिन
पुलिस वालों ने उठाकर पफेंक दी।कहते
मेरे रोना निकल गया तो वे मुझे चुप
कराते बोले, ‘कमाल है यार! इतने बड
होकर भी रोते हो?’
तो क्या रोने पर बच्चों का ही हक
होता है ?’ पर मेरी बात को अनसुनी
कर वे बोले, ‘अच्छा बताओ! तुम्हारे
गॉड पफादर है?’
नहीं, मेरे पफादर हैं तो गॉड पफादर
की क्या जरूरत ?’ तो वे मेरी पीठ पर
हाथ रख बड़े प्यार से समझाते बोले,
देखो वत्स! हूं तो मैं पुराने जमाने का पर
तुम्हारे भले के लिए कह रहा हूं कि
आज के दौर में कामयाब होने के लिए
काम के प्रति निष्ठा, लग्न की नहीं,
गॉड पफादर की आवश्यकता होती है।
जिसके पास जितना ऊंचे कद का गॉड
पफादर वह उतना ही कामयाब! पफादर,
पफादर होकर भी कहीं नहीं, तो गॉड
पफादर सब जगह। बल्कि कुछ यूं कहो
कि गॉड से भी बड़ा। आज पफादर के
बिना काम मजे से चल जाता है पर गॉड
पफादर के बिना कोई एक कदम भी
सपफलता हासिल कर ले तो मान जाऊं।
या यंू मान लो कि पफादर से आज बहुत-
बहुत बड़ा गॉड पफादर होता है।
तो!!!’
गॉड पफादर नियरै राखिए, चरणों में
लोटि लोटि जाए। पफादर कुछ करि
सके, गॉड पफादर सब करि जाए।

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