Thursday, October 28, 2010

हिंदी ! तेरा झाड़ा अमृत

शांति की तलाश में दिन रैन कस्‍तूरा हो भटक रहे मेरे शहर में एकाएक किसी ऐरे गैरे नत्‍थू खैरे बाबा के आने पर जो हाल बेहाल हो जाता है वही हाल बेहाल हिंदी पखवाड़े के आने पर मेरे देश का हो जाता है। जो आदरणीय बंधु सारा साल अंग्रेजी थूक- थूक कर पूरे देश का थोबड़ा थुकियाए रहते हैं इन दिनों वे बगल में हिंदी के बजट रुपी बकरे की खाल लिए, जुबान पर चाशनी की तरह किसी के अच्‍छे से निबंध के दो चार पहरे चिपकाए, करमंड़ में सौ दो सौ भारी भरकम ठेठ हिंदी के शब्‍द लिए, हाथ में हिंदी के पॉलिशड्शब्‍दों की माला फेरते- फेरते, हर विभाग में हिंदी की धुनी जमाए स्‍वयं को देश का सबसे बड़ा हिंदी प्रेमी कहते जीभ सुखाए नहीं थकते। वाह रे बायस समय के फेर! विभाग हैं कि इस पखवाड़े हिंदी के साथ की सारे साल की गुस्‍ताखियों से उऋण होने के लिए के हिंदी के कल्‍याणार्थ सड़कों पर कबाड़ी के कपड़ों के ढेरों की तरह बजट के ढेर लिए बैठे होते हैं। पर बेचारों को उठाने वाला ही नहीं मिलता। अब वे भी सच्‍चे हैं। पंद्रह दिन में साल भर पिचके पेट रहने वाला कितना की खा लेगा? इन दिनों जिस विभाग ने साहित्‍यिक गऊओं को जितना ग्रास दिया उसे हिंदी ने उतना अधिक फल दिया।
सच कहूं तो हिंदी पखवाड़े में इतना आकर्षण होता है कि․․․․कि इतना तो अपने जमाने में मेनका और उर्वशी में भी नहीं रहा होगा। अगर आज भी मेनका , उर्वशी होतीं तो इस पखवाड़े में सारा साल इनकी चौखट पर पड़े रहने वाले बुद्धिजीवी इन दिनों हिंदी की चौखट पर ही ड़ार लेते,पेट पर हाथ फेरते ही दिखते,मेरी तरह।
सारी उम्र अपने पुरखों और हिंदी को दाने दाने से मोहताज रखने वाले उनका श्राद्ध जिस लगन से करते हैं तो लगता है देश में धर्म अभी भी शेष है। पूरी तन्‍मयता से , सारी लोक लाज छोड़ पांव में हिंदी के घुंघरू बांध हे हर मंच पर नाचने वालो हिंदी प्रेमियों!! आपको शत्‌ शत्‌ नमन्‌! आपका हिंदी प्रेम हर पे्रम से बड़ा है। याद रखना! आपके कंधों पर ही हिंदी का सारा भार है। पंद्रह दिन तक तो आप हर मंच पर ऐसे नाचो कि घुघंरू टूट जाएं तो टूट जाएं। लोक लाज छूट जाए तो छूट जाए। पर हर हाल में बजट खत्‍म होना चाहिए। अगर ये न हुआ तो हिंदी को बहुत बुरा लगेगा कि कैसे हिंदी प्रेमी हैं? उसके लिए रखा बजट तो खा नहीं सके और फिर दावा ये कि हमसे बड़ा कोई हिंदी प्रेमी नहीं! आप ये सब कर अपना पेट नहीं हिंदी का पेट भर रहे हो। इन दिनों आप जितना खाओगे वह आपको नहीं दुर्बल हिंदी को ही लगेगा। आप तो हिंदी का पेट भरने के लिए माध्‍यम हो बस! इसलिए मन में कोई संकोच नहीं, कोई हीन सोच नहीं। वैसे मुझे पता है अधिकतर हिंदी प्रेमी सोच और संकोच से ऊपर उठे हुए होते हैं।
कल यों ही अपने गांव की साल भर सूखे रहने वाले तालाब के पास से गुजर रहा था। पर भैंसे हैं कि सूखे तालाब की मिट्‌टी में लोट पोट हो ही अपने में स्‍वदेशी होने का बहम पाले रहती हैं। उसमें मेंढक टर्रा रहे थे। एक मेंढक ने मुझे वहां से जाते देखा तो सूखे तालाब को फांद मेरे आगे खड़ा हो गया बोला,‘ और हिंदी प्रेमी! क्‍या हाल है?'
ठीक हूं।'
बैठो! कोई कविता- शविता हो जाए! बड़े दिनों से तुम्‍हारी कोई ताजा चोरी हुई कविता नहीं सुनी।' उसने कहा तो मुझे गुस्‍सा आ गया। हद है यार! हम मर गए चोरी के लिए हाथ पांव मारते- मारते और ये मेंढक हैं कि․․․․․ आप ही कहो, चोरी के लिए क्‍या हाथ पैर नहीं मारने पड़ते? ऊपर से चोरी की कविता के कवि से जो उसके मन में आए सुनते रहो। कवि जिंदा तो जिंदा, मरे भी अपनी कविता पर फणिधर की तरह कुंड़ी मारे बैठे रहते हैं। अपनी कविता को हम जैसों का हाथ नहीं लगाने देते तो नहीं लगाने देते । इनकी कविता पर हाथ साफ करना महीनों भूखे शेर के मुंह में हाथ डालने से कम नहीं होता। मैं तो कहता हूं ये सब करना किसी मौलिक कविता को लिखने से सौ गुणा ज्‍यादा मेहनत का काम है । हम जैसे जब इनकी कविता की ओर बढ़ते ही हैं कि ये नरक से भी भौंकना शुरू कर देते हैं। खैर, मैंने उसकी बात का कोई बुरा नहीं माना क्‍योंकि बुरा मान जाता तो हिंदी पखवाड़े की रात्रि पर कविता सुनाने जाने का सारा मजा किरकिरा हो जाता।
सच कहूं, आजकल तो मेरे जैसों के मजे ही मजे हैं। हरिद्वार के पंडे की तरह एक मिनट की भी फुर्सत नहीं। सबेरे नौ बजे से हिंदी प्रेमी विभागों में पदिआना शुरू कर देता हूं कि सिलसिला रात को भी चलता रहता है। मैंने उसके द्वारा जले पर खुद ही गुलाब जल ड़लते कहा,‘ अभी तो हिंदी का उद्धार करने के लिए एक आयोजन में जा रहा हूं। पर तुम बिन पानी ही सूखे तालाब में टर्र -टर्र क्‍यों किए जा रहे हो?'
तो अपनी कविता यहीं सुना दो न! हम भी हिंदी पखवाड़ा मना रहे हैं।' उसने कहा और हाइकू के नाम पर दो बाद टर्र- टर्र की।
पर सूखे तालाब में? यार इन दिनों तो हिंदी की फटी किताबें भी तर हो जाती हैं और तुम हो कि․․․ क्‍या किसी विभाग ने तुम्‍हें टर्राने के लिए बजट नहीं भेजा? इन दिनों तो हिंदी में , टर्राने तो टर्राने, खुर्राने वाले भी साल भर के लिए पैसा इकट्‌ठा कर टाटा हुए जा रहे हैं,' मैंने कहा तो मेंढक बिन कुछ कहे सूखे तालाब में जा मरा, सिर झुकाए। चलो देश में किसी को तो सच सुनने पर शर्म आई।
चोरी की कविताओं के असहनीय भार वाले थैले को कांधे पर उठाए मैं वहां से सीधा हिंदी पखवाड़े के कवि आयोजन में। वहां देखा तो हैरानी हो गई! कवि गोष्‍ठी में कई साल पहले दिवंगत कवि अधिक तो दूसरे गिनती के ! हद है यार! मरने के बाद भी कवि गोष्‍ठी नहीं छूटी। आखिर मैंने एक को आयोजकों की नजर बचा किनारे ले जाते पूछ ही लिया,‘ बंधु ये क्‍या! अब तो चैन करते। अगर मरने के बाद भी हिंदी पखवाड़े की गोष्‍ठियों में यों ही आते रहोगे तो हम तो जिंदा जी ही मर लिए। यही पंद्रह दिन ही तो होते हैं हिंदी प्रेमी होने का अहसास करने के लिए। हमें मारना ही है तो लो हमारे गले में अंगूठा दे दो। दिवंगत हुए पितृ पक्ष में आते ही शोभा देते हैं। वे कवि हों या श्रोता! कब है तुम्‍हारा श्राद्ध?'
मेरे श्राद्ध में क्‍या तुम ऐसी सेवा करोगे जैसी यहां हो रही है?इस पखवाड़े के कार्यक्रमों में आ तो हम एक बार फिर जिंदा हो उठते हैं। साल भर इस पखवाड़े का इंतजार रहता है और तुम कहते हो कि․․․'अब समझा! मेरे दादा ने अपना श्राद्ध पितृ पक्ष के सबसे बाद वाले दिन करने को क्‍यों कहा? वे भी कभी कभार अपने को हिंदी हिमायती कहा करते थे।

1 comment:

  1. आप के व्यंग्य पड़ कर दो बूंद खून के बढ़ जाते हैं ! कमाल है साहब !

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