Saturday, October 16, 2010

अगले दिन अखबार में

शहर के तथाकथित बुद्धिजीवी कई दिनों से बेहद परेशान थे। बड़े दिन हो गए थे विचारों की कब्‍जी हुए हुए। इन दिनों के बीच न किसी महापुरुष की जयंती ही पड़ रही थी और न ही किसी की पुण्‍यतिथि जिसे परंपरा बनाए रखने के लिए घर के सारे काम छोड़ पूरे उल्‍लास से मना बहाने से कुछ पिया पिलाया जा सकता । उन्‍हें कब्‍जी निकालने के लिए कोई आयोजन न सूझ रहा था। बेचारों के दिमाग में कब्‍ज से अफारा, और भी राम जाने क्‍या हो जो चार दिन और किसी आयोजन में जाने का सुअवसर न मिले। दिन भर बाजार में धक्‍के खाते खाते वे अचानक देसी शराब के ठेके के पास से गुजरे, चारों ने एक दूसरे की ओर हिनहिनाते हुए देखा तो उनमें से एक ने अपना चार साल पहले ड्राईक्‍लीन कराया कोट ठीक करते कहा,‘ यार! हद हो गई! बगल में छोरा और मुहल्‍ले में ढिंढोरा! आयोजन सामने और हम मर गए शहर में इस छोर से उस छोर तक कुत्‍तों की तरह आयोजन की तलाश में पर कहीं एक टुकड़ा आयोजन नसीब न हुआ। ये देखो, चलो नशा निवारण आयोजन ही कर लिया जाए। दूसरे हर आयोजन की तो देश में डेट फिक्‍स है पर नशा निवारण आयोजन तो कभी भी किया जा सकता है। इस बहाने रात को आयोजन के बाद थोड़ी थोड़ी गटक भी लेंगे और अगले रोज अखबार में चार लाइनें भी फोटो के साथ छपवा मारकर एक्‍टिव विचारकों की पंक्‍ति में भी जा खड़े होंगे।'
पर आयोजन के लिए अबके प्रशासन के किस विभाग को पटाया जाए?और तुझे तो पता है कि आज की डेट में बिना सरकारी स्‍पांसरशिप के लोग घर से मुर्दा भी नहीं निकालते ।'दूसरे ने चिंता की रेखांए अपने माथे पर कुरेदीं।
यार! इस आयोजन के लिए तो मदद देने के लिए हर विभाग आगे आएगा। बस उन्‍हें कहने भर की देर है। कौन नहीं चाहता कि नशा निवारण की आड़ में खुद हक से रूमानी हो लिया जाए।'
उन्‍होंने पहली बारी इस आयोजन को मनाने के लिए एक भद्र विभाग से संपर्क किया और उनका भाग्‍य की वहां से उनके कार्यक्रम को हरी झंडी मिल गई। भद्र विभाग के आफिसर ने कहा कि वे इस कार्यक्रम को गांधी को समर्पित करना चाहेंगे इसलिए कुछ कवि अवश्य हों जो समाज को कम से कम कविताओं के माध्‍यम से नशे से मुक्‍ति की बात करें। उनके लिए बाद में आफ द रिकार्ड पीने के साथ पारिश्रमिक की व्‍यवस्‍था भी होगी।
पर शहर के कवि हैं कि बिन पीए किसी भी विषय पर कविता बोलने को तैयार नहीं। उनमें से अधिकतर ने तो साफ कर दिया कि कार्यक्रम चाहे कोई भी हो वे बिन पीए कविता नहीं कह सकते तो नहीं कह सकते। वे कविता करना छोड़ सकते हैं पर पीना नहीं।
तो यार ये पीने का दौर कार्यक्रम के बाद कर लेना!'
पर कविता को बिन पीए बाहर निकालूंगा कैसे? तुम लेागों को क्‍या पता कि कविता को मन से बाहर निकालने के लिए कितनी मशक्‍कत करनी पड़ती है। थोडी सी तो चलेगी न??और पारिश्रमिक ??'
रखा है मेरे बाप। जानता हूं कि आज का कवि बिन पारिश्रमिक के शौच भी नहीं जाता। असल में क्‍या है न कि आज के सरकारी कार्यक्रमों ने टके टके के कवियों को भी सिर पर चढ़ा दिया है। रही बात पीने की तो बस हाथ जोड़ कर विनती है कि इतनी सी पी लेना कि किसी को पता न चले कि कवि नशा निवारण पर भी पीकर कविता कहने आया है।'
और तय शाम को शहर के भद्र विभाग के गेस्‍ट हाउस में कार्यक्रम शुरू हुआ। विभाग ने कार्यक्रम खत्‍म होने के बाद का सारा इंतजाम पहले ही कर दिया था, कार्यक्रम शुरू होने का इंतजाम भले ही न हुआ हो। प्रेसवाले आने से पहले ही बड़बड़ाए जा रहे थे,‘ यार! जल्‍दी करो! फोटो सा खिंचवा दो। मैटर बाद में दे जाना। अभी और भी जाना है। उन्‍होंने प्रेस कांफ्रेंस के साथ डिनर का भी इंतजाम कर रखा है।' अचानक एक ने कार्यक्रम के संयोजक के कान में फुसफुसाया तो कहीं से आनन फानन में गांधी को ढूंढ कर लाया गया। उनके ऊपर से बरसों की धूल गाली देते हुए बुद्धिजीवी ने झाड़ी,‘ यार गांधी! कम से कम अपने ऊपर की धूल तो झाड़ लिया करो। कल ही मेरा धुलवाया कोट खराब करवा दिया। ये साला बुद्धिजीविता का चस्‍का भी बुरा होता है।'
कार्यक्रम शुरू होने से पहले जारी हुए प्रेसनोट में खास कहा गया कि नशा निवारण के अवसर पर शहर के बुद्धिजीवियों ने ऐसे नशा विरोधी विचार रखे, कवियों ने ऐसी कविताएं पढ़ीं कि नशा शहर से शरम के मारे मीलों दूर भाग गया। गांधी चुपचाप प्रेस नोट बनाने में माहिर बुद्धिजीवी पर हंसते रहे। लिखवाना तो गांधी भी उस प्रेस नोट में अपना वक्‍तव्‍य चाहते थे, पर चुप रहे।
पे्रस नोट की ओर से मुक्‍त होने के बाद कार्यक्रम में नशा निवारण पर नशे में एक बुद्धिजीवी ने अपने विचार रखे। दो चार कविताएं भी हुईं। सभी को छोड़ गांधी सब को शीशे की टूटी फ्रेम में बंद हो सुनते रहे, चश्मे में से ताकते हुए।
बिल में कुछ जाली विचारकों और कवियों के नाम भरे गए। आए हुओं का पारिश्रमिक तो मारा नहीं जा सकता था। वे तो आए ही पारिश्रमिक के लिए थे।
आयोजक ने संयोजक बुद्धिजीवियों के साथ कार्यक्रम को समेटने के बाद थकान को मिटाने के लिए जाली बिलों पर कवियों,विचारकों ने एक दूसरे के जाली साइन कर वहीं बैठ गले तर किए। काफी देर तक कार्यक्रम की सफलता पर एक दूसरे को बधाई दी जाती रही। उठने की किसी में हिम्‍मत न बची थी।
दूसरे दिन अखबार में खबर छपी - शहर में गांधी के सम्‍मुख सफल नशा निवारण कार्यक्रम। शहर के गणमान्‍य बुद्धिजीवियों और कवियों ने ली देष से नशे को समूल समाप्‍त करने की शपथ। उस रात गांधी बेचारे अकेले ही उल्‍टे हुए गिलासों के साथ प्रेसरूम ही रहे। मैं तो वहां था ही नहीं। पर मजे की बात! अखबार में मेरा नाम भी छपा था।

 

2 comments:

  1. विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।

    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (18/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  2. जनाब, हमने तो आप का व्यंग्य पढ़ कर अपनी रुह तर कर ली ! आप बहुत उम्दा लिखते हो ! जरुर ऊंची उड़ान भरन्र वाले हो !

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