Friday, October 22, 2010

महाराज जी के अमृत वचन


पने गुरूघंटाल पूरनचंद जी महाराज श्री श्री लकड़ काठ श्री परम संसारी हैं। समय-समय पर उनके तीनों बंदर उनके सुसंग में रह उपदेश ग्रहण किया करते थे।

एक दिन उनके सबसे चालाक बंदर ने महाराज के दिमाग की परीक्षा लेते हुए कि महाराज का दिमाग अपडेट है भी कि नहीं, उनसे प्रश्‍न किया,‘हे गुरूघंटाल! मेरा किसीसे लड़ाई करने को मन बड़ा मचल रहा है। बड़े दिन हो गए किसीसे बिना लड़ाई किए। ऐसे में लड़ाई में जीत का सबसे सशक्‍त हथियार क्‍या है?'
अपने शिष्‍य की लंपटी पिपासा को शांत करते हुए तब गुरूघंटाल ने कहा,‘हे मेरे प्रिय शिष्‍य! लड़ाई में जीतने का सबसे आसान तरीका यह है कि लड़ाई में मर्द पीछे दुबका रहे और अपनी घरवाली की इज्‍जत की परवाह किए बिना उसे थाने में खड़ा करता रहे। इसका प्रमाण देते हुए मैं तुम्‍हें एक रोचक कथा सुनाता हूं ,‘ जंबू द्वीप में एक पंडितों का गांव था। उस गांव में पूरनानंद का परिवार रहता था। महादंगई! वह गांववालों से लड़ने का कोई न कोई बहाना ढूंढता रहता। पूरनानंद का अपनी पत्‍नी पर कतई भी कंट्रोल न था। जब भी गांव में उसका किसी से लड़ाई करने का मन होता, बन्‍ना बढ़ाने को मन होता तो वह वह अपनी औरत को आगे कर देता, बेचारा कहीं का! और वह सती सावित्री लोगों पर अपनी इज्‍जत हनन के झूठे आरोप जड़ देती, ऐसे आरोप कि उन्‍हें सुन आरोप भी पानी-पानी हो जाते। और बेचारे आरोप अपनी इज्‍जत लिए भाग खड़े होते। औरत जात का लाभ उसे हर बार मिल जाता। गांव के कुछ लोग शर्म के मारे ,तो कुछ उसकी बेशर्मी को देख चुप हो जाते या अपनी हार मान लेते । जिसके चेहरे पर नाक ही न हो उसे औरों की नाक उतारने में बड़ मजा आता है, आना भी चाहिए! जीवन का असली आनंद तो यही है। पूरनानंद की औरत की तरह। देखते ही देखते वह जिस से लड़ती जीत जाती। उसका बेटा मां द्वारा जीते केसों की लिस्‍ट बनाने मे मग्‍न रहता। उसका पति ऐसी पत्‍नी को पा फूला न समाता। सही होते हुए भी अब गांव में उससे कोई भी पंगा न लेता। अब घर में तो पूरनानंद के पूरे आनंद थे ही,गांव भी पूर्णानंद की दशा को प्राप्‍त हो गया । गांव ने वाले पूरनानंद की घरवाली तो घरवाली ,उसकी परछाई से भी डरते ।' बोलो पूरनचंद महाराज की जय!
तब महाराज के दूसरे बंदर ने महाराज से पूछा,‘ भगवन, आज के रेलमपेल के दौर में स्‍वर्ग कैसे प्राप्‍त हो?'
महाराज ने चिलम का गहरा कश लिया,तत्‍पश्‍चात गंभीर हो बोले,‘हे मेरे प्रिय बंदर! जो संसारी औरों के हक हड़पते हैं,जो झूठ सीना चौड़ा कर खुले बाजार में खड़े हो शान से रहते हैं, जिनका अपना सिर नंगा होता है पर ,औरों की पगड़ी उछाल कर परिश्रम से चूर हुए रहते हैं,जो औरों के लिए सदा गड्‌ढा खोदते हैं,ऐसे सज्‍जनों को सदा स्‍वर्ग की प्राप्‍ति होती है। जो दुर्जन सत्‍य, अहिंसा ,त्‍याग,तपस्‍या को अपने जीवन का अंग बनाते हैं , उन्‍हें नरक की प्राप्‍ति होती है। आज के दौर में जो अपने माता पिता की सेवा करते हैं वे भी नरक के ही अधिकारी बनते हैं। जो अपने रिश्‍तेदारों को हमेशा परेशान करते हैं,वे स्‍वर्ग के अधिकारी होते हैं। अपनी घरवाली के होते हुए जो औरों की घरवालियों पर उन्‍हें अपनी धर्म बहन बना अपना पौरुष न्‍यौछावर करते हैं उन्‍हें स्‍वर्ग के द्वार आठों याम खुले रहते हैं। वे बिना वीजा के स्‍वर्ग में कहीं भी आ जा सकते हैं। ' कुछ देर तक लंबी सांसें भरने के बाद महाराज ने अपने प्रियों को पुनःसंबोधित करते हुए कहा,‘जो दूसरों की सपने में भी सहायता नहीं करते उन्‍हें भी स्‍वर्ग प्राप्‍त होता है। मुंह के आगे और, और पीठ के पीछे और रहने वालों को भी स्‍वर्ग की प्राप्‍ति तय मानो । जो विशुद्ध सांसारिक आत्‍माएं हमेशा दूसरों की निंदा में निमग्‍न रहती हैं वे वैतरणी पलक झपकते पार कर लेती हैं। इसलिए जो सज्‍जन स्‍वर्ग में भी मौज करना चाहते हों वे नित्‍य कर्म में सभी तामसिक वृत्‍तियों,प्रवृत्‍तियों को शामिल करें तो उन्‍हें मोक्ष पक्‍का मानो।'
तब तीसरे बंदर ने अपना प्रश्‍न किया,‘हे मेरे परम प्रिय गुरू घंटाल! इस लोक में सबसे सुखी कौन है?'
तब गुरू घंटाल ने उसकी भी पिपासा को शांत करते हुए कहा,‘जिसके चित में संतोष है, जो आज के दौर में भरा है,जो जिओ और जीने दो के सिद्धांत में विश्‍वास रखता है,वह इस लोक का सबसे बड़ा दरिद्र है। जो इच्‍छाओं का भक्‍त है, जिसकी नजरें हमेशा गिद्ध की तरह औरों की थाली पर ही जमी रहती हैं, जो हमेशा भूखा ही रहता है, वही सच्‍चा धनवान है। जो आत्‍माएं चौबीसों घंटे औरों का बुरा ही सोचती रहती हैं, सभी को धुआं देकर रखती हैं, किसी को गाली-गलौज किए बिना जिनको रोटी हज्‍म नहीं होती, वे आत्‍माएं ही इस संसार की सबसे सुखी आत्‍माएं हैं। ऐसी आत्‍माओं को मैं सुबह से शाम तक नमस्‍कार करता हूं।
तब सृष्‍टि में दूर-दूर तक फैले अपने भक्‍तों को टीवी के माध्‍यम से संबोधित करते हुए गुरू घंटाल जी महाराज ने कहा ,‘जिस दिन मनुष्‍य से जूतमपैजार,अपराध , पर निंदा, लूटखसूट , पर पीड़ा , असहिष्‍णुता जैसे सत्‍कर्म नहीं होते वह दिन मनुष्‍य का व्‍यर्थ जाता है।'
इस प्रकार गुरू के ज्ञान में डुबकियां लगा तीनों बंदर भव सागर पार हुए। बोलो गुरूघंटाल महाराज की जय!!

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